"सर, क्या मैं अंदर आ सकता हूँ?''
प्रिंसिपल ने स्कूल के फंड से पैसे बैंक जाकर निकलवाने के लिए मुझे अपने कक्ष
में बुलवाया था। प्राचार्य चेक साइन कर चुके थे। तभी कमरे का परदा जरा-सा
हटाकर भीतर आने की इजाजत चाहता वह खड़ा था।
प्राचार्य ने इशारे से उसे आने की अनुमति दी। वह भीतर आ गया, आभार में केवल
मुस्कुराते ही नहीं, हाथ जोड़े हुए।
"हाँ, कहो...?''
मैं भी समझ रहा था, शायद अनाथ आश्रम के लिए चंदा माँगने आया हो। स्कूल में
अक्सर ऐसे लोग आते रहते हैं सहयोग माँगने। सबूत के तौर पर अपने पास किसी
अधिकारी द्वारा प्रमाणित पत्र को जिलेटिन कवर में रखे हुए। और प्रिंसिपल
आर.के. सिंह जो बहुत होशियार प्रिंसिपल माने जाते हैं, ऐसे लोगों को तुरंत
चलता कर देते हैं, 'अरे, जाओ यार किसी सेठ-साहूकार को पकड़ो! ये सरकारी संस्था
है कोई धर्मार्थ संस्था नहीं!' पर ये ऐसे ढीठ होते हैं कि उनका दो टूक जवाब
सुनकर भी वे चिरौरी करना नहीं छोड़ते और रेलवे स्टेशन के भिखारियों की तरह एकदम
पीछे पड़ जाते हैं। पर उनके सामने दाल आखिर तक नहीं गलती। मैं माने बैठा था,
इसका भी यही हाल होगा। बैरंग वापस।
"सर... मैं स्कूल-स्कूल जाकर अपना खेल दिखाता हूँ।'' ऐसे मौके पर शायद सबसे
कठिन होता है पहला वाक्य कहना और उसने अपने अभ्यास के चलते इस बाड़ को पार कर
लिया था। "सर, इससे बच्चों का मनोरंजन हो जाता है। सर, मैं पिछले कई साल से ये
कर रहा हूँ। आपके स्कूल में भी बच्चों को दिखाना चाहता हूँ। सर, कृपा करके
मुझे अनुमति दीजिए...।'' वह अब तक हाथ जोड़े खड़ा था, उसी तरह याचक भाव से
मुस्कुराते।
वह एक निहायत दुबला-पतला आदमी था। पिचके हुए गाल में कटोरे जैसे गड्ढे थे। रंग
कभी गोरा रहा होगा पर अब तो उसका हल्का आभास ही बाकी है। वह कब का रंग छोड़
चुका एक ढीला शर्ट पहने था। कंधे पर एक थैला लटकाए। उमर पैंतीस-चालीस के बीच
रही होगी लेकिन दिखता अड़तालिस-पचास का था। गरीबी और अभाव समय से पहले आदमी को
कैसे बूढ़ा कर देता है, वह इसका जीता-जागता नमूना था। देश के लाखों अभावग्रस्त
लोगों की मानिंद।
मुझे तो बिलकुल उम्मीद नहीं थी, पर प्रिंसिपल को न जाने क्या सूझा कि आगे पूछ
दिया, "अच्छा, क्या-क्या करतब दिखाते हो?''
"अरे, बहुत कुछ सर।'' वह सर की सहमति से एकदम बच्चों की तरह उत्साहित हुआ और
अपने थैले से निकालकर एक पुरानी-सी फाइल दिखाने लगा, जिसमें अखबारों की कतरनें
चिपकाई गई थीं। प्राचार्य के साथ मैं भी उसकी फाइल देखने लगा। उसी से मालूम
हुआ उसका नाम लक्ष्मण सिंह है, पिथौरा निवासी। फाइल में ज्यादातर स्कूलों से
उसे मिले प्रशस्ति पत्र थे। कुछ प्रशस्ति पत्र विधायकों और मंत्रियों के भी
थे। प्रायः सभी में उसके करतबों को अच्छा, मनोरंजक और आकर्षक बताते हुए उसके
उज्जवल भविष्य की कामना की गई थी।
"आज कौन-सा दिन है...?'' प्रिंसिपल ने मुझसे यों ही पूछने के लिए पूछा। यह तो
वे अपने सामने रखे टेबल कैलेंडर देख के भी जान सकते थे, किंतु जब आपका कोई
अधीनस्थ साथ हो तो काम ऐसे भी किया जाता है।
"सर, शुक्रवार।'' मैंने बताया।
"यानी कल शनिवार है। तो आप कल दोपहर बारह बजे के आसपास आ जाइए। पर एक बात है,
तुम अपने करतब की आड़ में कोई चीज तो नहीं बेंचोगे? ... ताबीज या और कुछ...?''
"नहीं सर। बिल्कुल नहीं।'' उसने एकदम यकीन दिलाया, "अपना ऐसा कोई धंधा नहीं
है, सर। अपन खाली अपना सरकस दिखाते है।''
प्रिंसिपल ने उसे अनुमति दे दी।
लक्ष्मण सिंह कृतज्ञता से एकदम झुक-झुक गया, "बहुत-बहुत धन्यवाद सर!
...बहुत-बहुत धन्यवाद! मैं कल टाइम पे आ जाऊँगा, सर...।"
वह हाथ जोड़े-जोड़े कमरे से चला गया।
मैं बाद में देर तक इस बारे में सोचता रहा - लक्ष्मण सिंह आखिर इतना दीन-हीन
क्यों रहा हमारे सामने? वह अपना खेल दिखाएगा, बच्चों का मनोरंजन करेगा, इसके
बदले में कुछ पैसे बच्चों से या देखने वालों से पा जाएगा। प्रिंसिपल की सहमति
जरूरी है। पर इस छोटी-सी बात के लिए इतनी कृतज्ञता? जैसे इसी हाँ पर उसका
भविष्य टिका हो! वह भी एक कलाकार होकर! या फिर उसकी कला में कहीं कोई कमी है
जिसे वह कृतज्ञता से ढकने की कोशिश कर रहा है? लेकिन लगा कि मैं कितना गलत और
एकांगी सोच रहा हूँ! लगा, वह इस सिस्टम को मुझसे कहीं ज्यादा बेहतर जानता है
जहाँ बैठा हुआ हर अधिकारी अपने 'इगो' को लेकर बीमार की हद तक ग्रसित रहता है
और उन्हें कुछ ऐसी ही तरकीबों से खुश किया जा सकता है, क्योंकि बदले में आप
उसको कुछ पैकेज या गिफ्ट तो नहीं दे रहे हो जो आज काम करवाने का नियम ही बन
चुका है। उनके इगो को संतुष्ट करके ही आप उनसे काम ले सकते हैं। स्कूल-स्कूल
घूमने के बाद लक्ष्मण सिंह को यही अनुभव हुआ हो और उन अनुभवों ने ही उसे नाजुक
डाली के समान नचीला बना दिया हो। लेकिन एक मन कहता था कि नहीं, वह कलाकार है
और उसे अपनी और अपने कला की गरिमा बना के रखना चाहिए, जितना भी हो सके। वह कोई
सड़कछाप भिखारी नहीं है। वह अपनी कला दिखलाकर बदले में कुछ पाता है। पर उसका
सलूक मैं पचा नहीं रहा था जो मुझे रेल डिब्बों में झाड़ू लेकर फर्श बुहारने
वाले अधनंगे भिखारी लड़कों की तरह का लगा था, जिनके चेहरे, हाव-भाव सब में एक
स्थायी दयनीयता चस्पा होती है, जो हर मुसाफिर के पास घिसटते हुए पहुँचते हैं -
रुपये-दो-रुपये के लिए हाथ फैलाते।
पर मैं बेवकूफ भूल बैठा था कि वह इस दुनिया में अकेला नहीं है, कि उसका परिवार
है जिनके पेट भरने की रोज की जिम्मेदारी उसके सर पर है, और महज कला जान भर
लेने से पेट नहीं भर जाता। उस कला को सबके सामने लाने का और उससे कमा लेने का
हुनर भी चाहिए होता है। और जरूरी नहीं कि हर कलाकार को यह हुनर आता ही हो।
दूसरे दिन वह समय पर आ गया था। अपने परिवार के साथ। पत्नी और तीन बच्चे, जो
उसकी खेल दिखाने वाली टीम के सदस्य भी हैं। और एक पुरानी साइकिल जिसमें उसके
खेल के सामान बँधे थे। यह जुलाई के आखिरी दिन थे, इसके बावजूद आज बारिश के
आसार नहीं थे, हालाँकि आकाश में सलेटी बादल छाए हुए थे और दिन कबूतर के पंख की
तरह सुरमई और कोमल था। मौसम का यह रूप हमारे स्कूल के लिए बहुत अच्छा था।
इसलिए कि यह छोटे-से गाँव का एक छोटा स्कूल है, जहाँ छठवीं से दसवीं तक की
कक्षाएँ लगती है। गिने-चुने कमरे हैं। बच्चों के बैठने के लिए अलग से कोई हॉल
नहीं है। स्कूल के सारे कार्यक्रम लाल बजरीवाले खुले प्रांगण में ही होते हैं।
बरसात होने पर कार्यक्रम रद्द।
भगवान का शुक्र था कि बरसात के दिन होने के बावजूद मौसम खुला था।
स्कूल के बच्चे और स्टॉफ प्रतीक्षा कर हे थे कार्यक्रम शुरू होने की। बच्चे
इसलिए खुश थे कि आज पढ़ाई नहीं होगी और खेल देखने को मिलेगा, वहीं स्टॉफ इसलिए
कि आज पढ़ाना नहीं पड़ेगा। और अधिकांश शिक्षक ऐसे हैं जिनके लिए नहीं पढ़ाना इस
पेशे का सबसे बड़ा सुख है।
स्टॉफ-रूम में लक्ष्मण सिंह हमसे मिलने वहाँ आया। आते ही उसने सभी शिक्षकों को
प्रणाम किया। उसके साथ पाँचेक बरस का एक नन्हा और सुंदर बच्चा था, जिसकी आँखों
में काजल की मोटी रेखा थी, गालों में रूज की लाली के दो गोले और माथे पे लाल
टीका।
"अरे, सर-मैडम लोगों को नमस्ते करो!'' उसने बच्चे से कहा।
बच्चे ने नमस्ते में हाथ जोड़ लिए।
मैंने उसे अपने पास बुलाया, पूछा, "क्या नाम है तुम्हारा?''
"रामू जोकर।" उसने सपाट भाव से कहा।
सुनकर मुझे एक धक्का लगा। पाँच-छह बरस की नन्हीं उम्र। नाम रामू जोकर। जोकर।
जैसे अभी से उसका भाग्य तय हो गया हो आगे क्या बनना है? वह इतनी छोटी उम्र में
अपने पिता के साथ काम कर रहा हैं। अभी शायद उसे काम शब्द का मतलब भी नहीं
मालूम। उसके लिए अभी काम भी बस एक खेल है। वह खेल की तरह यह काम कर लेता होगा।
उसके चेहरे पर कातरता नहीं, अपनी उम्र की स्वाभाविक मासूमियत थी और यही बात
गनीमत लगी मुझे। पर जैसे-जैसे वह दुनिया को जानने लगेगा, सीखने लगेगा जीने के
एक जरूरी गुण के रूप में। कला के साथ-साथ इस 'गुण' का विरासत में मिलना उसके
प्रति एक घोर अन्याय लगा था मुझे। साथ ही यह भी लगा कि इस अपराध में लक्ष्मण
सिंह के साथ हम सब शामिल हैं उसके बालपन की हत्या करके उसे सिर्फ एक पालतू और
उपयोगी जानवर बनाने में। वह कल इसका अभ्यस्त हो जाएगा और इसी निरीहता के साथ
जीता रहेगा, यह जाने बगैर कि उसके भी कुछ अधिकार हैं, कि दुनिया के करोड़ों लोग
इन अधिकारों के साथ जीते हैं।
मुझे गुस्सा आया था लक्ष्मण सिंह पर। लेकिन अंततः मैं कर ही क्या सकता था?
मेरे सोचने भर से क्या होता है? घर-परिवार चलाने का भार लक्ष्मण सिंह को ही
ढोना है। कैसे? यह उसे ही तय करना है। मेरे भावनात्मक रूप से यो पसीजने का कोई
अर्थ नहीं था।
बीच मैदान में लक्ष्मण सिंह ने अपना डेरा जमाया। उनके चारों ओर बच्चे जमा हो
गए। एक अपेक्षाकृत छाँवदार जगह में प्रिंसिपल और शिक्षक-शिक्षिकाएँ कुर्सियों
पर।
उसकी सूखी मरियल देह वाली पत्नी ढोलक बजाती थी और जोर-जोर से कुछ गाती जाती
थी। अपनी किसी भाषा में जो हम सबकी समझ से परे थी। पता नहीं वह उड़िया गाती थी
कि तेलुगु या फिर असमिया। कभी लगता यह मराठी है तो कभी लगता कन्नड़। शायद यह
संथाली थी या शायद गोंडी या हल्बी या ऐसी ही कोई आदिवासी भाषा जो इस दुनिया से
बहुत जल्द खो जाने वाली है। ढोलक की थाप के साथ उसके रूखे भूरे बाल बार-बार
सामने आ जाते थे। पता नहीं वह क्या तो गा रही थी पर लगता था जैसे अपनी आत्मा
को झिंझोड़कर गाते हुए वह लगातार हमसे कुछ कहने की कोशिश कर रही है, किंतु हम
जो उसकी भाषा से सर्वथा अनजान थे, कुछ नहीं समझ पा रहे थे सिवा उसकी ढोलक के
चीखते-से धपड़-धपड़ के। बीच-बीच में उसकी आठ साल की बेटी अपनी पतली आवाज में कुछ
अजीब लय में औ ओऽ ओऽ ओऽऽअ करके अपनी माँ के सुर में सुर मिलाती थी मानो उसके
कहे का समर्थन करती हो। इस दौरान नन्हा रामू जोकर जमीन पर बार-बार गुलाटियाँ
खाता रहा और बच्चे हँसते रहे। सबको नमस्कार करके लक्ष्मण सिंह ने अपना खेल
आरंभ किया। उसने अपनी ढीली कमीज उतार कर वहीं गड़ाए डंडे पर लटका दिया। बनियान
में वह दुबला-पतला जरूर नजर आ रहा था लेकिन कमजोर या कातर कतई नहीं... बल्कि
कमीज के उतारते ही एक गजब की चुस्ती और फूर्ति न जाने कहाँ से उसकी देह में आ
गई थी, जैसे कमीज ने जाने किन कारणों से उसकी क्षमता को अब तक दबा के रक्खा
हो। अब वह हमारी आँखों के सामने एक के बाद एक करतब-दर-करतब दिखलाता जा रहा था।
सबसे पहले एक रस्सी में उसने कुछ गठान लगाए और दूसरों से उसे खोलने को कहा, जब
हममें से कोई उसे नहीं खोल सका तब उसने उसे पलक झपकते खोल दिया। उसके पास एक
काठ की चिड़िया थी जिसे वह बाँस की एक कमची में फँसाकर जैसा चाहे वैसा उड़ा सकता
था। उसके हाथ में आते ही हम काठ की चिड़िया को सचमुच की चिड़िया की तरह अपने
सामने उड़ता देख रहे थे और उसके पंखों की फड़फड़ाहट हमारे कानों में गूँज रही थी।
यहाँ तक कि उसकी चिंव-चिंव की मीठी आवाज भी हम सुन सकते थे। बच्चों ने एकदम
खुश होकर तालियाँ बजाई। लक्ष्मण सिंह ने इसके बाद अपनी छाती पर एक साथ चार
ट्यूब लाइट्स फोड़े। उसकी छाती जैसे बिल्कुल पत्थर की थी जिससे टकराने के बाद
जोर-से फटाक की आवाज के साथ ट्यूब के गैस और काँच के चूरे बिखर गए। बच्चों ने
फिर ताली बजाई। इसके बाद उसने अपने दस साल के दुबले बेटे को जमीन पर लिटा दिया
और उसकी छाती पर एक के बाद एक तीन बोल्डर अपने सब्बल से फोड़ता चला गया। उसका
बेटा करतब के बाद एक झटके से यों उठ खड़ा हुआ मानो अपनी नींद से अभी-अभी जागा
हो। फिर जोरदार तालियाँ बजीं। इसके बाद लक्ष्मण सिंह ने अपने सीने पर रखकर
दीवाली वाला एक बड़ा एटम बम फोड़ा। धमाके से पूरा स्कूल गूँज उठा और चारों तरफ
धुआँ ही धुआँ भर गया। धुआँ छँटने के दौरान लोगों ने देखा लक्ष्मण सिंह अपनी
देह की धूल-मिट्टी झाड़ता हुआ उठ खड़ा हुआ है और उसे एक मामूली खरोंच तक नहीं आई
है। बच्चों ने इस बार भी ताली बजाई। उसे सचमुच कुछ नहीं हुआ था और अब सबको
यकीन हो गया था कि लक्ष्मण सिंह को कुछ नहीं हो सकता, भले ही उसके शरीर पर
घावों के जाने कितने ही निशान थे जो उसे इन खेलों के दौरान ही मिले हैं। घावों
के ये काले नीले निशान सबको काफी दूर से भी साफ नजर आते थे। इसके बाद लक्ष्मण
सिंह ने अपना एक और 'स्पेशल' आयटम पेश किया। उसने 10 इंच की एक बड़ी छड़ हमको
देकर इसे मोड़ने को कहा। यह हम सबके बूते से बाहर की बात थी। मैडम लोग तो शरमा
के हँसने लगी थीं। सबने उसे छूकर, उलट-पलटकर देखा कि कहीं किसी जगह से बैंड तो
नहीं या कोई और चालाकी की बात तो नहीं। लेकिन हम उस रॉड में कुछ भी खराबी नहीं
ढूँढ़ सके। वह लोहे एक सीधी-सपाट और किसी आदिम चट्टान की तरह सख्त मजबूत छड़
थी। लक्ष्मण सिंह ने जब इस मजबूत रॉड - जिसे हम चार लोग मिलकर भी जरा-सा नहीं
मोड़ पाते - को केवल अपने गले की हड्डी के बल पर मोड़ देने का असंभव-सा दावा पेश
किया, तो उसके बहुत शक्तिशाली लगने के बावजूद हमने उसके इस हैरतनाक दावे पर
भरोसा नहीं किया। रॉड का एक सिरा उसने जमीन में थोड़ा गड्ढा करके गड़ाया और उसके
दूसरे सिरे को रखा अपने गले पर। चोट न लगे इस एहतियात से उसने गले के सामने
कुछ मोड़ तहाकर अपना रूमाल रखा। उसने अपने शरीर से जोर लगाना शुरू किया। पैर के
पंजों को बेहद सख्ती से जमीन पर गाड़ लिया। इस अत्यधिक बल से उसकी देह की तमाम
नसें एकबारगी यों फूल गईं जैसे अभी-अभी किसी ने उनमें हवा भर दी हो। खासतौर पर
उसके गले, भुजाओं और माथे की उभरीं नीली नसों के जाल को हम साफ-साफ देख पा रहे
थे। और वह अपने गले की हड्डी से, पैरों से जोर पे जोर लगाता जाता था। एक पल को
लगा, रॉड उसके गले को भेदकर पार निकल जाएगा। लक्ष्मण सिंह अपनी देह की समूची
ताकत से जूझ रहा था। वह जैसे अपने सामने के किसी पहाड़ को ठेल रहा हो। देह से
पसीने की धार छूट रही थी। उसकी मटमैली बनियान कब की पसीने से बिल्कुल तर हो
चली थी। और अचानक ही, जाने कैसे इस बमुश्किल पाँच फुट हाइट वाले आदमी का कद
हमारे सामने बढ़ता ही जा रहा था और अब उसकी ऊँचाई स्कूल के छज्जे को छू रही थी।
उसके गले के उस हिस्से में, जहाँ रॉड धँसा था, पहले लाल चकते पड़े फिर ये निशान
गहरे हुए, फिर खून की कुछ बूँदें सब लोगों ने छलछलाती देखीं। लक्ष्मण सिंह
मानो अपनी जिंदगी दाँव पे लगाकर पूरी ताकत झोंके हुए था, इधर उसकी पत्नी
द्वारा बजाए जा रहे ढोलक पर थाप की गति एकदम बढ़ गई थी और इसी के साथ उसके गाने
की लय भी तेज हो गई थी जिसे समझ पाने में हम अब भी सर्वथा असमर्थ थे। ...और
फिर कुछ देर तक साँस रोक देने वाले भय, रोमांच तनाव और सन्नाटे के बाद सबने
देखा कि रॉड मुड़ रहा है... बीच से... धीरे-धीरे..., फिर वह क्रमशः मुड़ता चला
गया, और इसी के साथ बच्चों की तालियों का शोर बढ़ता गया। फिर कुछ ही पल बाद
हमने देखा कि रॉड बीच से मुड़कर अँग्रेजी के 'व्ही' आकार का हो गया है! भले ही
लक्ष्मण सिंह के गले में खून छलछला आया था, लेकिन हमने पाया स्कूल का पूरा
आकाश उस के इस अचंभित विजय पर तालियों की गड़गड़ाहट और खुशी के शोर से भर उठा
है! और बहुत देर तक गूँज रहा है!
खेल खतम!
जादू टूटता है।
अब जो हो रहा है वह कोई करतब या कमाल नहीं है।
रामू जोकर के हाथ में एक खंजड़ी है जिसे उसने उल्टा पकड़ा हुआ है - दिए जाने
वाले पैसों के लिए कटोरा बनाकर। उसके संग उसका बड़ा भाई भी धूम रहा है। गाँव के
बच्चों और एकत्रित लागों से दान माँगा जा रहा है। गाँव के सरकारी स्कूल में
गरीबों के ही बच्चे पढ़ते हैं। बहुत से माँ-बाप अपने बच्चों को स्कूल भेजते ही
इसलिए हैं क्योंकि यहाँ मध्यान्ह भोजन मिलता है, जिससे उनके एक समय का भोजन बच
जाता है। फिर भी जिससे जो बन पड़ा वे दे रहे थे खुशी-खुशी।
स्कूल की आज की छुट्टी हो गई थी। बच्चे अपना बस्ता लिए घर लौटने लगे।
प्रिंसिपल सहित हम सभी टीचर्स स्टाफ-रूम में थे। सभी टीचर्स यहाँ शहर से आते
हैं जो गाँव से पच्चीस किलोमीटर दूर है। सो सबको घर जाने की जल्दी थी।
लक्ष्मण सिंह स्टाफ-रूम में हाथ जोड़े-जोड़े मुस्कुराते हुए आया। सबसे दान या
सहयोग जो कह लें माँगने। एक पल के लिए वह आज मुझे बिलकुल नया आदमी जान पड़ा था,
अभी-अभी खतम हुए उसके खेल के कारण। पर जरा-सी देर में जान गया कि अब वह फिर कल
वाला लक्ष्मण सिंह है, कृतज्ञता से भरा और इसी के बोझ से मुस्कुराता।
प्राचार्य आर.के. सिंह ने उसे जब बीस रुपये दिए तो वह दबे स्वर में लगभग
गिड़गिड़ाने लगा, 'सर बच्चों से भी यहाँ कुछ खास नहीं मिला, कम से कम आप तो...।
सर पचास रुपया कर दीजिए...। प्रिंसिपल ने उससे कहा, 'अरे, हमने तुमको तुम्हारा
खेल करने दिया यही बहुत है। बलिक तुमको स्कूल को ही कुछ दे के जाना चाहिए...
जैसे दूसरे लोग दे के जाते हैं। खैर। मैं अभी इससे ज्यादा नहीं दे सकता।"
प्राचार्य सिंह ठीक ही कह रहे थे, इसलिए कि अभी-अभी उनका काफी खर्चा हो गया है
मकान बनवाने में, यही कोई बीस लाख। उन्होंने कुछ दिन पहले ही हमको ये बताया
था। कि बिल्डिंग मटेरियल्स के रेट आसमान छू रहे हैं। तिस पर करप्शन! दस हजार
तो उनको खाली मकान का नक्शा पास करवाने निगम के इंजीनियर को देना पड़ा था। फिर
अभी भवन पूर्णता प्रमाण पत्र के लिए पाँच हजार की डिमांड है...। पर लक्ष्मण
सिंह उनसे बहुत आग्रह कर रहा था, 'सर आप इतने बड़े आदमी हैं, कम से कम पचास
तो...?' लेकिन प्रिंसिपल आर.के. सिंह बहुत होशियार प्रिंसिपल यों ही नहीं माने
जाते। वे टस से मस नहीं हुए।
लक्ष्मण सिंह अब मैडमों की तरफ बढ़ा। मैडम लोगों के लिए यह जैसे एक संकट की घड़ी
थी। यहाँ चार मैडम हैं। उन्होंने मिलकर उसे बीस रुपये दिए। अब यह कहने की कोई
बात ही नहीं है कि सबकी आमदनी अच्छी है और पति-पत्नी दोनों कमा रहे हैं। पर
कोई क्या करे जब सब चीजों का खर्चा इतना बढ़ गया है। बच्चों के पब्लिक स्कूलों
की पढ़ाई-लिखाई, सब्जेक्टवाइज ट्यूशन्स या डांस क्लासेज... कितने तो खर्चे हैं।
लक्ष्मण सिंह को निपटाकर वे अपनी-अपनी स्कूटी से निकल लीं।
लक्ष्मण सिंह मेरे पास आया तो मैंने उसकी मुट्ठी में तीस रुपये रख दिए। उसने
मुस्कुराकर धन्यवाद दिया और बाहर निकल गया।
अब वहाँ प्रिंसिपल और मैं ही रह गए थे।
अभी हम कुछ बात कर पाते इससे पहले लक्ष्मण सिंह का बड़ा लड़का अपने छोटे भाई
रामू जोकर के साथ अंदर आ गया। बड़े भाई ने शायद धंधे की कुछ चालाकी सीख ली है।
उसने प्रिंसिपल के पैर पकड़ लिए एकदम..., 'सर, हम आपके पैर पड़ते हैं, दस रुपया
तो और दे दीजिए सर...। हम माँ बच्चों के कुछ खाने के लिए दे दीजिए, सर...।' वह
सर के पैर से जोंक की तरह चिपट गया। उसने अपने छोटे भाई से भी साहब के पैर
पकड़ने को बोला। नन्हा रामू जोकर भी टेबल के नीचे से कैसे भी तो घुसकर उनके
दूसरे पैर से वैसे ही चिपक गया। अब कमरे में विचित्र दृश्य था, दोनों लड़के
प्रिंसिपल के पैर पकड़े गिड़गिड़ा रहे हैं... सर... सर...।
प्राचार्य उनको झिड़क रहे हैं, 'अरे छोड़ो...! ये क्या लगा रक्खा है? अबे छोड़ो!
इधर ये दोनों थे कि उनके पैर छोड़ ही नहीं रहे थे - "बहुत भूख लग रही है, सर...
भजिया खाने को दस रुपया दे दो!'' इधर प्राचार्य ने भी जैसे ठान लिया था कि
इनको एक नया पैसा नहीं देना है। दोनों भाइयों ने जब कुछ नहीं मिलता देखा तो
बोलने लगे... सर, पाँच रुपया ही दे दो...! सर, पाँच रुपया...! सर...! छानों
बच्चे अब बिल्कुल ऐसे भिखारी बन चुके थे जिनकों देखने से पहले तो मन में
अजीब-सी ग्लानि भर जाती है, फिर तीव्र घृणा।
प्रिंसिपल ने उन्हें काफी गुस्से से देह में चढ़ आए किसी कीड़े के समान झटक दिया
- 'चलो हटो साले! पीछे ही पड़ गए हैं!' और वे तेजी से कुर्सी से उठ खड़े हुए।
मुझसे कहते हुए निकल गए कि स्कूल बंद करवा देना। मैं जा रहा हूँ। और वे बाहर
खड़ी अपनी कार स्टार्ट करके उसी तेजी से निकल गए।
हमारे स्कूल में चपरासी नियुक्त नहीं है, इसकी विवशता में बच्चों से ही
दरवाजे-खिड़कियाँ बंद करवाके ताला लगवाना होता है। मैं बाहर आया तो लक्ष्मण
सिंह और उसकी पत्नी अपना माल-असबाब बहुत धीरे-धीरे समेट रहे थे। तीनों बच्चे
भी वहीं बैठे थे। वे सभी बहुत थके हुए लग रहे थे।
मैंने कहा, लक्ष्मण सिंह, तुम सब अंदर स्टॉफरूम में बैठो। मैं तुम लोगों के
लिए नाश्ता बुलवा रहा हूँ।
स्कूल के वे दो-चार बच्चे जो स्कूल बंद करते हैं, रुके हुए थे। उनको नाश्ता
लाने मैंने होटल भेज दिया।